श्रीकृष्ण०--आओ, सुदर्शन पायो । देखा तुमने । तुम्हारी एक छोटी सी भूल का कितना भयकर परिणाम हुआ ? यदि उस समय तुम पहरे पर से न हटते तो कभी ऐसा अवसर न भाता । तुम्हारे वहाँ मौजूद रहने पर कैसे कोई अनिरुद्ध को उठाकर लेजाता ?
सुदर्शन--भगवन् , मैं तो अपनी उस गल्ती पर स्वयं ही लजित हूं । अब लजे हुए को और क्यों लजा रहे हैं :-
अगर बदला हो उस गल्ती का कोई तो बता दीजे।
खड़ा है सामन दोषी, जो जी चाहे सजा दीजे ॥
- श्रीकृ०--सज्जा तो नहीं, परन्तु उस गल्ती का एक नतीजा
तुम्हें भोगना ही पड़ेगा !
- मुद०--वह क्या ?
- श्राकृ०--भगवान शकर के त्रिशूल के साथ लड़ना पड़ेगा।
- सुद०--सो किस प्रकार ?
श्रीकृ०--तुम्हें अभी हमारे साथ अनिरुद्ध की सहायता के लिए शोणितपुर चलना पड़ेगा। कदाचित्, वाणासुर की सहायता के लिए भगवान् शंकर आये तो हमें उनसे और तुम्हे उनके त्रिशूल से लड़ना पड़ेगा।
सुद०--तो क्या वहाँ भापका शंकर के साथ युद्ध होगा।
श्रीकृ०--हाँ, दुनिया के दिखाने को होगा। परन्तु वास्तव में हमारा उनसे न कभी युद्ध हुआ है और न कभीहोगा। देवताओं के यह सब गुप्त रहस्य हैं, इन्हें समझकर तुम क्या करोगे ?-