पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/१२१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १०४ )

आज के पर्दे को हटाकर 'रक्षा' की प्रार्थना करने के लिए मेरा आत्मा आपके सामने इस प्रकार बोला है :-

दया करिये दयामय पुत्र पै सकट न आजाये ।
वहां खुद जाइये जिससे विजय वह बाल पाजाये ।।
जिन हाथों ने कि दावानल से अज अपनी उमारी है ।
उन्ही हाथों पै मेरे लाल की भी आज बारी है ।।

श्रीकृ०--पुत्री, बस,अब तुम्हाग यह करुणा भरा संताप नहीं देखा जाता है, मेरे हृदय सागर में ज्वारभाटा आता है । जाओ, तुम शान्ति पूर्वक अपन महलों में जाओ। अब मैं स्वयं शोणित- पुर जाता हूं और विजय पूर्वक अनिरुद्ध को लाता हूं।

रुक्मा०--उपकार, अनन्त उपकार ! [चलीजाती है]

श्रीकृ०--( रुक्मिणी से ) रुक्मिणी,तुम भी इसके साथ जाओ और इसका जी बहलाओ।

(रुक्मिणी का जाना)

श्रीकृष्ण(स्वात )--समय आगया,अब मुझे अवश्य शोणित- पुर जाना चाहिए और अनिरुद्ध को छुड़ाने के बहाने दुष्ट वारणासुर का मद मर्दन करके वहाँ पर होनवाले शैव वैष्णवों क माहों को भी मिटाना चाहिए :--

इधर अनिरुद्ध का इस कष्ट से उद्धार होजाये ।
अधर धर्मों के झगड़े का भी बेड़ा पार होजाये ॥

परन्तु अकेले चलना ठीक नहीं है। सुदर्शन को भी साथ लंघलना चाहिए। अच्छा तो सुदर्शन को इस समय स्मरण करना चाहिए। [स्मरण करना और सुर्दशन का आना] सुदर्शन [आकर] भगान्, प्रणाम !