पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/११९

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श्रीकृ०--ग्यारी रुक्मिणी, सुनो, संसार में हानिलाभ, जीवन- भारण, यश और अपयश, यह सब बात तो रोज ही होती रहेगी। मैं कहां कहां जाऊ ? पुत्र पौत्र सब प्राप्त होगए अब भी घर म बैठकर शान्ति न पाऊँ ?

रुक्मि०--शान्ति और मुख प्राप्त करो, परन्तु कब ? जब पुत्र और पौत्र की रक्षा करचुको । संतान को अपने समान बनाने की चेष्टा करचुको--

जो समझदार हैं यूं काम किया करते हैं।
घर बना चुकने पै सन्यास लिया करते हैं ।।

श्रीकृ०--तुम तो पीछे ही पड़गई। तुम्हें यह भी न भूल जाना चाहिए दि अनिरुद्ध की सहायता को बारह अक्षौहिणी सना भी गई हुई है।

रुक्मि०--सेना गई है तो क्या हुआ,वह सब तारोंके समान है। युद्ध का श्राकाश उस समय तक पूर्ण प्रकाश न पाएगा, जबतक पूर्णचन्द्र वहां अपन प्रकाश न फैलाएगा : नाथ, वृन्दावन के न बछड़ो के लिए जब आप स्वयं ब्रह्माजी तक से लड़ने को तैयार होगये थे तो क्या आज अपने पौत्र अनिरुद्ध की रक्षा के लिए आप कुछ न करेगे ?-

जनक कारण नस्त्रपर तुमन गिरि गोवर्धन धाराथा ।
अधम अघासुर नीच बकासुर कुटिल कंस को माराथा ।।
काली का मदमर्दनवाले, अपना बल फिर दिखलाओ।
पौत्र घिरा है जो संकट में, उसे छुड़ाकर लं आओ ।।

श्रीकृ०--यह जो तुमने मेरे बालकाल के चरित्रों का बखान