पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/११६

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वाणा०--(सिपाहियों से) सिपाहियो,क्या देख रहे हो ?

(सिपाहियोंका दौडकर अनिरुद्ध को पकडना

और वाणाटर का उठ खडे होना)

बाणा०--इसे नागपाश में बाँध लो!

[सिपाही अनिरुद्ध को बांध लेत ह]

अनि०--है ऐसी शान में लानत है ऐसी चाल में। शेर के बच्चे को फांसा इस तरह पर जाल मे ।।

वाणा०--फांसा ही नहीं बल्कि समाप्त करदेना है। इस तलवार से सिर उड़ा देना है।

[मारना चाहता है, उसी समय वायुयान मे ऊषा चित्रलेखा सहित भाती हे ]

ऊषा०--ठहरिये, पिताजी ठहरिए !

चाणा०--है । यह कौन । उषा ? राज-व्योमयान पर ? स्या कहती है ?

उचा०--(सामने आकर) उन्हे न मारिए-

पिता तुम व्याज खोकर मूल भी अपना भवाघोगे। सन्हे मारा तो विधवा-वेश में ऊषा को पायोगे ।।

वाण०--तो तू भी ले !

(कमान पर तीर का खीचना भी भगवती उमा का प्रकट होना)

उमा--ठहरो--

वाणा०-- कौन ? माता जी ?

उमा--हां, वाणासुर!-