पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/११

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प्रत्येक काम केवल परोपकार की लालसा से करते हैं। उनका विचार है कि वृद्धावस्था त्याग और शान्ति का पाठ करने के लिये बनाई गयी है। अन्त में पुत्रवधू की करुणा भरी पुकार सुन कर वे युद्ध में जाने को तैयार होते हैं।

बलराम ज़रा सी बातमें क्रुद्ध होजाते हैं। उनमें सहनशीलता कम है। अनिरुद्ध के महल से अन्तर्ध्यान होने का समाचार सुनते ही वे आपे से बाहर होजाते हैं। वे तुरन्त सेना भेजने की सलाह देते हैं। वे कृष्ण की शान्ति और नियमपरायणता के विरुद्ध हैं।

रुक्मिणी भारत की नारी का आदर्श है। उसमें अपने स्वजनों के प्रति मोह और अनुराग है। वह पुत्र और पौत्र को संकट में देख कर चुप चाप नहीं बैठ सकती।

नारद जी देवर्षि हैं, परन्तु शोक है कि हिन्दी नाट्यकारों ने उनके आसन को नीचा गिरा दिया है। जहाँ आवश्यकता पड़ती है, उन्हें बुलाया जाता है। जहां कलह कराना हो वहाँ उनका प्रवेश कराया जाता है। यहां तक कि 'झगड़ालू' और 'नारद' पर्यायवाचक शब्द मान लिये गये हैं। हमें आशा है कि नाट्यकार नारद को हास्य पात्र न बनाकर, उनको उनका खोया हुआ सम्मान लौटाने की कृपा करेंगे। हर्ष की बात है कि इस नाटक में नारद फिर भी बहुत सम्भले हुए हैं।

जैसा नाटक के नाम से प्रकट होता है, नाटक की प्रधान पात्री ऊषा है। हम निस्संकोच कह सकते हैं कि श्रीमद्‌भागवत की ऊषा से इस नाटक की ऊषा सब बातों में बढ़ी चढ़ी है। पार्वती के प्रसाद से यह स्वप्न में अनिरुद्ध को देखती है। केवल इसी कारण वह उसको अपना वर चुन लेती है। विवाह से पूर्व दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं होता। वह अनिरुद्ध से प्रेम करती है, परन्तु उसका प्रेम सच्चा और गहरा है। जैसा पार्वती जी ने मन में ठाना था कि 'वरउं शम्भु न तु रहउँ कुवाँरी' ठीक उसी प्रकार ऊषा भी मन में प्रतिज्ञा कर लेती है कि मैं इस जीवन में केवल अनिरुद्ध से विवाह करूंगी––