पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/१००

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सुद॰––हाँ महाराज, माताजी की आज्ञा मानकर हटगया।––

अगर यह दोष है मेरा तो मैं निर्दोष भी भगवन्।
सुदर्शन ने तो की तामील माँ के हुक्म की भगवन्॥

उग्र॰––अच्छा तो तुम नारदजी के पास चलेगये?

सुद॰––हाँ महाराज।

उग्र॰––वे तुमसे मिले?

सुद॰––नहीं महाराज।

उग्र॰––तुम उन्हें ढूंढते रहे?

सुद॰––हाँ महाराजा।

उग्र॰––सारी रात ढूंढते रहे?

सुद॰––हाँ महाराज।

उग्र॰––भोले, सीधे और विश्वासी पहरेदार तुम धोखा खागये। (सुबुद्धि से) क्या किसीने इस बातका भी पता लगाया है कि इन्हें वहाँ से हटानेवाली अनिरुद्ध की माता ही थीं या उनके वेष में कोई और माया थी?

सुबुद्धि॰––हाँ महाराज, इस बात की भी तहक़ीक़ात होचुकी है। राजकुमार की माता तो रात भर अपने शयन-मँदिर ही में रही थीं। वे तो वहाँ से उठकर भी नहीं गयी थीं।

उग्र॰––तब तो यह बड़ी निराली घटना है। हमारे राज्य में ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ! श्री मदनमोहन जी कहाँ हैं? आज वे भी दरबार में नहीं आये!

उद्धव॰––[सामने देखकर] शायद वही सामने से आरहे हैं। संभव है कि इस विषय में वे कुछ जानते हों।––