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द्वितीय सर्ग कल (२२) अवधपुरी की सदन-लक्ष्मियाँ स्नान हेतु सब आई है, 'शिव सकल्पमस्तु' की ध्वनियाँ सरयू के तट छाई है , वेद ऋचाओ का गायन, सुन पडता अति मगल पावन, चली, बह चली तरी उधर ही- जिधर उठा यह स्वर मन-भावन , सुनो कल्पने, क्या कहती है ये सब स्नानाक्लक्षिणियाँ, सुनो मधुर झकार रही है उनकी ककण-किकिणियाँ । (२३) मै सुमन्त गृहिणी के सँग कल राजभवन मे गई, सखी, पुलकित हो सुमन्त-रानी की यो उठ बोली नई सखी- बडे नेह से, बडे चाव से, मुझे बिठाया हाव-भाव से, पटरानी ने । फिर बोली वे- “वधुओ के दर्शनाभाव से- तुम्हे लौट जाना होगा।" मै यह सुन कर कुछ सहम गई, वे कहती ही गई -'हमारी सब वधुएँ अब अगम भई ।" (२४) कुछ न समझ पाई मै, आली, सोचा यह कैसा व्यापार ? पटरानी मेरे प्रति यो क्यो रूठी बैठी है इस बार मृदु उपहास न समझ सकी मै, खो बैठी सुध-बुध निज की मै, साम्राज्ञी के उस श्रीमुख पर- गभीरता देख झिझकी मै, तब तो सौम्य सुमित्रा माता किलक उठी उल्लास भरी, मैं भी सम्हल गई-हो आई वधु-दर्शन की हौस हरी । 2