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( ग ) म सा और ऐसा फंसा कि अम्मिला को फिर से प्रारम्भ करने का अव- का ही न मिला । सन् १९३० मे दो बार छ-छ मास का कारावास दए मिला । तब लिखने का विचार आया। पर उस वर्ष कारागार मे भी नेतागीरी ने मेरा पिण्ड न छोडा । अम्मिला-लेखन का विचार यों ही . इसके उपरान्त सन १९३१ के दिसम्बर मास मे मै फिर पकड़ लिया गया। इस बार मुझे ढाई वर्ष का कारावास दण्ड मिला। इस बार मैंने दृढ विचार कर लिया कि इस कारावास की अवधि मे अम्मिला समाप्त करनी है। बाधाएँ तो बहुत आई। कारागार के तर मार, पीट, लडाई, झगडे, एक कारागार से दूसरे मे स्थानान्तर अनेक विप- दाएँ झेलनी पड़ी। पर, व्याघातों के प्राते हुए भा. न् १९३४ के फरवरी मास मे मै जब बाहर निकला ता ऊमिला समाप्त कर चुका था। प्रथम सर्ग और बाद के सर्गों के लिखे जाने मे प्राय बारह वर्षों का व्यवधान है । हॉ, एक बात आश्चर्यजनक है। मै जितना नित्य लिखता था तो नीचे तिथि डाल दिया करता था। एक बार मैने पाण्डु लिपि से सब तिथियों को जोड कर यह जानना चाहा कि अन्तत. मुझे इसके लिखने में कितना समय लगा। मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मैंने यह देखा कि इस सम्पूर्ण ग्रन्थ को लिखने में मैंने सवा चार- साढ़े चार मास से अधिक समय नहीं लिया । समाप्त तो यह ग्रन्थ सन् १६३४ मे हो चुका था। पर, प्रकाशित अब हो रहा है। प्रशसा कीजिये- यह है मेरा योग कर्मसु कौशलम् । जब मैंने अपने एक मित्र को यह सूचना दी कि मै अम्मिला समाप्त कर चुका हूँ, तो वे सूखे से मुंह से बोले-हूँ। फिर थोडी देर के बोले-यह तुमने क्या किया? ऊर्मिला पर काव्य-ग्रन्थ क्यो लिखा ? वही पुरानी बात। यदि प्रबन्ध काव्य ही लिखना था तो कुछ और विषय चुनते । तुम ने अम्मिला पर लिखकर अपना समय ही गॅचाया। स्मरण रखिये कि मै इन मित्र का आदर करता हूँ। उनकी रसज्ञता एवं साहित्य-परख का मै कायल हूँ। पर, मै उनके इस कथन से सहमत नहीं हो पाया। मैं यह नहीं कहता कि प्रबन्ध काव्य के लिये नए विषय नहीं मिल सकते या नए विषयों को लेकर प्रबन्ध काव्य की रचना नहीं हो सकती। मेरा मतभेद तो उनके इस सिद्धान्त से है कि पुराने विषयों या व्यक्ति-विशेषों पर आज कल प्रबन्ध काव्य लिखना समय गंवाने के