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? ?" १५० "प्रोही ! जीजी | डॉट-डपटना कब से तुम को आया किस गुर्वाणी ने तुमको यह नव गुरुमन्त्र पढाया "नट-खटपन करती जाअोगी या तुम फ्ल चुनोगी ? मॉ बिगडेगी यदि तुम मेरी बातो को न सुनोगी ।" जो प्रासादोद्यान स्वनित था होत। इस मृदु स्वर स.- जहाँ तरगित होता मारुत था इस स्वर हिय-हर से, वहाँ एक क्षण तू रह पाता यदि हे रक, भिखारी,- तो फिर, वह निर्वाण-मधुरता तुझ को लगती खारी । १५२ यो हॅसती, क्रीडाएँ करती, दोनो जनक-दुलारी,- पुष्प-चयन कर, चली हर्म्य को दोनो नवल कुमारी, भुज लतावलम्बित करण्डको के प्रसून हंसते थे, विमल भक्ति के भाव कुसुम की पंखुरी में फंसते थे। धीरे-धीरे जब वे दोनो पहुँची जनकालय में, तब मानो उद्यानो से उड आए विहग निलय में, सीता और अम्मिला दोनो लिपट गई माता से,- मानो दो बछडियाँ गाय की चिपट गई माता से। "सीते, तुम हो बडी अनोखी, मै बैठी हूँ कब से ? मार्ग देखती रही तुम्हारी, अरी ऊम्मिले, तब से । इतनी देर लगाई क्यो तुम दोनो ने उपवन मे ? भला कही, होता विलम्ब है इतना पुष्प-चयन में?