यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२५ सूख गई चिन्ता से, उसके सुन ये वचन, कपोती, ढलक पडे उमकी आँखो से आतुरता के मोती, सूख गया कल कण्ठ, रुक गई गुटुर-गुटुर की ताने,- तडप उठा यि, मानो मारा बाण खीच व्याधा ने। १२६ उसकी दशा देख पारावत व्यग्र हो गया हिय मे, देख अाँसुओ की धारा को दुखित हुआ वह जिय मे, उस ने बड़े प्यार से पोछी उस की ऑखे गीली, सवेदन की धारा उमडी हिय-तल बीच रसीली । १२७ 'फिर बोला, 'हे प्रिय कबूतरी मेरी, क्यो रोती हो ? वृथा, हृदय में गोक-अग्नि से क्यो विदग्ध होती हो ? मैं जल्दी ही आ जाऊँगा उस निर्जन कानन से, क्षण भर भी न भुलाऊँगा मै तुमको अपने मन से।' १२८ यह सुन, हिय पर पत्थर रख कर कबूतरी वह बोली,- अपनी हृदय-नीवियाँ उसने धीरे-धीरे खोली, मानो शान्त नीड में धधकी दावानल की ज्वाला, अथबा नेह-कमल-सर में पड गया निराशा-पाला । १२६ हे कपोत, उट्ठी कैसी यह हिय में विकृता लय है किन हाथो ने, हाय, उजाडा मेरा सुखद निलय है ? तुम यह क्या कहते हो? मै कुछ समझ नहीं पाती हूँ, सुन ये वचन, दु ख-सागर मे मै तो उतराती हूँ। ?