पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६२३

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पष्ठ सर्ग १८३ "चाहे कुछ भी कहो लखन, पर- ज्यो-ज्यो घटता है अन्तर, ज्यो-ज्यो अवध निकट आती है, त्यो - त्यो कॅपता है अन्तर, सास मिलेगी, बहने होगी, भरत मिलेगे, उस क्षण हिय का कैसे होगा निश्चल धीरज - व्रत-पालन ? तनिक सम्हाले रखना, होऊँ- कही न में बौरानी-सी, कही न हो जाऊँ मै, लालन, खोई - सी, अरुझानी- सी। प्रो लालन, हृदय - परीक्षा मैं विचलित - सी हो जाती हूँ, सोच - सोच वह मिलन-घडी, देवर, उस घटिका में होगी, बडी कड़ी, यदि धीरज से सहज सह सकू, - उस क्षण की ममता, माया,- तब समर में हुई अलिप्ता, सच्ची धीर राम-जाया, तुम नर, तव अग्रज नारायण, निर्विकल्प हो तुम जिय मे, तुम क्या जानो क्या होता है, देवर, नारी के हिय मे"