पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६२१

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षष्ठ सर्ग . सब नर को नारायण कर देना यही राम की लीला है इसीलिए यह दैहिक बन्धन, ढीला-ढीला ह, भरत-माण्डवी, रिपुसूदन-श्रुति- कीत्ति, हमारी सब माएँ- पुरुषोत्तम रूपिणी हो गई सकल अवध की ललनाएँ। राम नेह-रत अवध-निवासी हो भले, एक तपस्या के झटके मे जग के जजाल टले।" १८० "लक्ष्मण, हाँ, वास्तव में तुम अब हो बन गए बडे ज्ञानी, खूब-खूब आती है, लालन, तुम को गुत्थी सुलझानी," "यह प्रमाण पत्रिका, देवि, तुम, दो मम अग्रज को जाके, वे प्रसन्न हो तुमको देगे कुछ उपहार बड़े बॉके, "उन से तो उपहार बहुत से- पाए, कुछ तुम भी तो दो, "क्या है मेरे पास ? देवि, हे- यह प्रणाम, लेना हो, लो ।" 11 ६०७