पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६११

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षष्ठ सर्ग १५६ नवरस से जो पर परम रम, इन्द्रिय की गति जहाँ नही, भाभी, आस्म-रमण की लीला अब होती है वही, कही, दारुण दाह मिटा अन्तर का, मन का सभ्रम दूर हटा, यौवन-मदिरा उतर गई है, सत्य-नेह हिय मे प्रकटा, अमल सलिल मे मै डूबा हूँ, दरम - पिपामा तो क्या विस्मृत हुई ऊम्मिला? नही, सुरति-सस्कृता हुई। मृता हुई, 1 फेरी? नही ऊम्मिला विस्मरणीया, नाम-सुमिरिनी वह मेरी, कैसे विस्मृत हो वह जिसकी, मालाएँ मैने उसका तो विस्मरण, देवि, है आत्म-विमोहित हो जाना, श्री अम्मिला-रूप-विस्मृति है मोह-नीद में सो मै निद्रापति, जीत चुका हूँ- आत्म-विमोहन की पीडा, बरसो से हो रही देवि यो- जागरूकतामय जाना, क्रीडा ।