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मैं तथा मेरे और ५४ साथी, सन् १९२१ के दिसम्बर मास की १३वीं तिथि को, प्रयाग में, उक्त कांग्रेस समिति की बैठक करते हुए, घर लिये गए थे । ग्रेट ब्रिटेन के राजकुमार, जो पचम जार्जे की मृत्यु के उपरान्त अष्टम एडवर्ड के रूप में ब्रिटिश साम्राज्य के सम्राट हुए और तदनन्तर अब ड्य क आफ विंड्सर हो गए है, उन दिनो भारत-भ्रमण कर रहे थे। कास ने उनका बहिष्कार किया था। दमन का चक्र तीव्रता से चल रहा था । कांग्रेस संस्था अवैध घोषित कर दी गई थी। काग्रेस जन कारागार मे ढकेल दिये गए थे। प्रयाग के मर का कारागार की एक घुडसाल-अर्थात् बैरक- न्यायालय के रूप परिणत की गई। उन दिनो, जहाँ तक स्मरण भाता है, नॉक्स नामः, , अग्रज प्रयाग का जिलाधीश था। उसने हम पचपन लोगो को डेढ़-वर्ष का कारावास दण्ड दिया। हम लोग कई टोली मे विभक्त कर दिये गए। कुछ नैनी केन्द्रीय कारागार भेजे गए । कुछ आगरा कारागार गए । और, कुछ बनारस । मै बनारस पहुँचा अपने अन्य साथियों के साथ । प्रथम बनारस केन्द्रीय कारागार, ततु- परान्त बनारस जिला कारागार मे हम रखे गए। पश्चात् प्रान्त भर के सब उच्च श्रेणी के बन्दी लखनऊ जिला कारागार भेज दिये गए । इस प्रकार घूमता-घुमाता मै लखनऊ पहुंचा। लखनऊ मे सात बन्दी भयानक समझे गए । उनके नाम ये हैं-- जवाहरलाल नेहरू, स्वर्गीय जॉर्ज जोजेफ, स्वर्गीय महादेव देसाई, पुरुषोत्तमदास टण्डन, देवदास गान्धी, परमानन्दसिंह (बलिया) और बालकृष्ण शर्मा । अत ये सब एक छोटी धुडसाल मे बन्द कर दिये गए । सब से अलग। इस सब मण्डली मे देवदास गान्धी और मैं दो ही छोटे, अथच अध्यापनीय थे। अतः जवाहर भाई हम लोगो को अग्रेजी तथा भूमिति (जियामेट्री) पढ़ाया करते थे। हम लोगों ने वहाँ, जवाहर भाई से मैकबेथ (शेक्सपियर का दुखान्त नाटक) आद्योपान्त पढ़ा। उसी समय से मैं समझा कि जवाहर लाल जी बड़े अच्छे शिक्षक । उनका वह स्कूल मास्टरी का अभ्यास अभी तक नहीं छूटा है। इसी समय मेरे मन मे यह विचार आया कि अम्मिला पर कुछ लिखना चाहिये । अत मैंने १९२२ ई० के नवम्बर के अन्त में या दिसम्बर के प्रारम्भ मे अम्मिला मिखनी आरम्भ की। प्रथम सर्ग लखनऊ कारा- वास मे, प्रायः एक-सवा मास मे. लिखा गया । जनवरी सन १९२३ के अन्त में हम लोग कारागार-मुक्त हुए। उसके उपरान्त वाहर के मझदों