पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५९१

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पप्ठ सर्ग हुआ न ११६ शुद्ध धर्म की, सत्य स्नेह की तुमने खीची परिसीमा, श्रद्धा-ज्योति-प्रकाश तुम्हारा, कभी धीमा, कुहू निराशा के क्षण मे भी राम-चरण-रति रही भली, हार गया शतश प्रयत्न कर, रावणत्व की नही चलो, दानवत्व दुर्दान्त उबर था, इधर तुम्हारी दृह 'नाही', है लका साक्षी, न हो सकी, मलिन तुम्हारी पग्छाही । १२० रामचन्द्र की विजय नही है- कुछ भी, तव जय के आगे । तुमने तो लका जीती है, जननि, अकेली ही आ के, पुण्य अलौकिक मातृरूप लख, राक्षस नहीं रहे दानव, एक झलक में ही, मॉ, तुमने-- उनको बना दिया मानव, आर्य - सास्कृतिक - सूर्योदय की तुम ही प्रथम-किरण, जननी, तव चरणार्पण के क्षण से ही भागी लका की रजनी । ५७७