पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५८९

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षष्ठ सर्ग पतनोत्थान हुमा, मैंने ये सक्रान्तिकाल की घटिकाये देखी चपला, मंने नव सगठन - नोदना हृदयगम की है प्रबला, इन आँखो के आगे ही द्रुत गति से प्राण-हरण भी हुआ लक मे- चिर नव-जीवन-दान हुआ, वह अतीत गौरव लका का चिर - निद्रित हो गया, अहो । वह भौतिकतावाद मृत्यु की- निद्रा में सो गया, अहो । ऐसे समय, अहो ऐस क्षण, जब इतने सस्मरण उठे,- जब मन-नभ-मण्डल मे आकर, य इतन धन गहन जुट, तब, हे राम, शिथिल हो जाती- रसना, यो ही परवश-सी, वचनावलियों हो जाती है कुछ कुण्ठित, कुछ सालस सी, क्षमा करे श्रीराम गुरु, मुझे, यदि डगमगे शब्द-निश्चय, यदि न शब्द से आज दे सकू, राम-शिष्यता का परिचय। ५७५