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पष्ठ सर्ग ७६ मारक, उत्पादक आक्रान्तक, नाशक, दाहक प्रवृत्तियाँ, सहसा जागृत होती है ये, असुर - भावमय दुष्कृतियाँ, बिखर फैल पडती है हृद्गत भावनाएँ गुप्ता, ज्यो प्रज्वलित हमन्ती-गत हो अग्नि-राशि ऐसे क्षण मे यही धर्म है, कि हम राष्ट्र के विमुख चले, फिर चाहे हम अपनी ही के-- क्रोधानल मे क्यो न जले । अति उन्मुक्ता, एक आग है, जो जलती है, सहसा धधक-धधक कर के, ऐसा दावानल है, जो है- जलता भभक-भभक कर के, शम, दम, सयम अतिलधित कर जन-उन्माद बफरता मानवता अपहृत होती है, पशुता से जग भरता “सत्य, ज्ञान, सस्कृति, शतियो का वैभव सारा,- क्षण में भस्मसात् होने को खिच प्राता है-बेचारा ! यह सचित V