पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५३८

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ऊम्मिला आज त्याग, सग्रह की शोभा, सँग - सॅग लका मे निखरी, आज त्याग की, जन-सग्रह की, शोभा छहर छहर बिखरी, इन्द्रियजित, सयमी, आत्मजित, नर को लोकेषणा कहाँ लोभ कहाँ उस पुण्य हृदय ये, सत्गवेषणा जहा जो जग-जन के हृदयो मे नित विश्वधर्म के भाव भरे, वह जन-मन पति अपने सिर क्यो पर - शासन का भार धरे ? सब आबाल रामचन्द्र के जय-निनाद से, रही लका-नगरी, सुमति विभीषण के प्रसाद से. पुलक रही डगरी - डगरी, वृद्ध पुरवासी हर्षित फूले - फूले से अति प्रसन्न मन डोल रहे है निज पथ भूले - भूले से, हुई सज्जिता लका नगरी, घर सज कर पुलक उठा, आज लक मे प्रति गृह से सुख स्वर्णिम बह-बह, ढुलक, लुटा । घर - ५२४