पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५२८

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ऊम्मिला ६६२ निरखौ केश-कलाप मे छटा जटा की भव्य, रहौं, तपत तप नेम को, यह मेरो मन्तव्य । पिय, तुमने मम 'मै' हर्यो, देहु मोहि, 'मै' रूप, न लेहुँगी, यह अद्वैत अनूप । काहू दाम पै कैसे झगरहु, अहो, अपने ही सौ जाय, कहा करो, यह मैं' गयो अपने आप बिहाय । बारि नेह को दीयरा, अन्तर में धरि गोय, पिय को ढूँढन जो चली, तो गइ आपुहि खोय । कहा भयो यहा ऐ ? अरे, मिट्यौ जात यह द्वैत ? कैसे सहसा बहि उठ्यो यह प्रवाह अद्वैत ? ६६७ देख्यो जो निज नैन भरि भयो द्वैत को अन्त, सहज द्वैत की यवनिका उठि-उठि चली तुरन्त । ५१४