पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५२७

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पत्रम सर्ग ६८६ भली भई, दुविधा गई, मिट्यो मॅजोग-वियोग, या वियोग हू मै मिल्यौ, मोहि चरम मजोग । पल-पल म, क्षण-क्षणन मे, मबै ठौर, मब काल, मोहि मिले कण-कणन म, अपन सजन कृपाल । मिट्यौ काल को भेद यह, मिट्यो विरह को दाह, चन्दन-लेपन व गयो, हिय को अनल-प्रवाह । ६८६ प्रीति-गति अमला भई, रति-गति भई अदेह, भई अनिगिन भक्ति हिय, भयो अपार्थिव नह । अब प्राई उपरामता, अब पायो निर्वेद, अब रति अबला व गई, मिट्यो स्वद को खेद । लक्ष्मणमय अन्तर भयौ, बाहिर लखै न कोय, रहसि ध्यान चिन्तन करौ, कबहूँ प्रकट न होय ।