पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५०८

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ऊम्मिला ५७२ छकि छकि दृग-मधुकरन ने, कर्यो रूप रस-पान, वियोगाग्नि मे करत वे, अब छकि-छकि असनान । ५७३ वैश्वानर रूपिणी, विरह-हुताशन-जाल, दहत मोह, आवत निखरि, प्रेम-हेम तत्काल । ५७४ . प्रेम कहा, जो ना पर्यो, विरह अनल की आच ? बन्हि परीक्षित नेह है, नित्य चिरन्तन साच । ५७५ जब नाचे मन मगन ह्व, विरह-अशनि के बीच, तबै समझिये, वह भयो कछुक सनेह नगीच । अनल-रास-क्रीडा बनी, प्रेम-परीक्षा शुद्ध, ता बिन नाहिन होतु है शुद्ध नेह उद्बुद्ध । ५७७ क्यो न अनल-ताडव मचै? क्यो ना धधके ज्वाल ? क्यो न लपकि लपटै बढ़े, हिय-दाहक विकराल ? ४६४