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६० वे दोनो राजा रानी के, जीवन के तारे थ, कई उन्होने अपने ऐहिक सुख उन पर वारे थे, माँ की प्यारी गोदी मे जब दोनो छुप जाते थे- स्नेह-भाव रानी के उस क्षण अद्भुत सुख पाते थे।" वे होते, "जीजी, क्या ही अच्छा होता यदि तुम-हम में भगिनी, तुम तात चरण के होती बस इकलोते, हम तुम दोनो खूब देखते पर्वत की शोभा को, दीप्तिमान शिखरो की सारी आभा मन-लोभा को।" "फिर बोली तुम? "-"अच्छा,अच्छा अब न कभी बोलूंगी कहे चलो तुम, कभी न अपनी अब जिह्वा खोलूगी।" "अच्छा, फिर बस इसी तरह कुछ बरस कट गये उनके, दोनो भाई-बहन, सुनो, आगार हो गये गुन के ! राजा की उस प्यारी बेटी की सुकान्ति कमनीया- चमक-चमक कर दिग्दिगन्त मे व्याप्त हुई रमणीया, वह पार्वत्य प्रदेश हुआ अति मुखरित उस की छबि से-- ज्यो प्रातर्वेला होती है मुखरित प्रागत रवि से। ६४ प्रबल प्रतापी राजकुंवर वह आर्य मुकुट का मणि था, वह था नर शार्दूल, दस्युमो का दल करि-करिणी था, उसके सन्निधान में बैरी कभी न टिक पाते थ,- उसके बाग, दस्यु-तम, रवि-कर-सदृश काट आते थे।