पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४९७

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उचम सग ५०६ आखिन म सपनो भरे, नासा में उच्छ्वाम होत होइगे, देखि इन, पीतम कछुक उदास । सीय - राम - लक्ष्मण - चरण - रेणु गहन बन माँझ वन-जन-दुख हवेहे हरत, प्रति प्रान , प्रति मॉझ । ५०८ करि विनष्ट अज्ञान-तम, हरिवों जड भू-भार, बडो कठिनतर कर्म यह, करिवौ ज्ञान प्रमार। धर्म-भावना राजमहल जगत की, उठी हिए में पीर, भए, वन मे बसी कुटीर । ५१० सूने परे गवाक्ष ये, शून्य भई सब ठौर, जा दिन ते कमलाक्ष मम, मुरे विपिन की ओर । ५११ वातायन मो सदन के, भये उदास अपार, अब कोउ उत्सुक ना रह्यो, उनते झॉकन हार । ४८३