पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४८४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जम्मिला ४२८ बेठि निपट एकान्त मे, धरिय ध्यान अविकार, तह रहि रचिये आपुनो, सपने को ससार । . ४२९ जन-पद, जन-रव, जन-नगर, जन-गण हो अति दूर, कहूँ कुटीर बनाइए, जहाँ मौन भरपूर । ४३० सोरठा रमि रहिए सब काल, अति नि शब्द प्रदेश मे, चलिय अटपटी चाल, अति अबाध गति-रूप है । ४३१ जहाँ न पहुँचत शब्द, जहें वायु-विकम्प न लेश, जह न होत मति-गति चलित, तहाँ पिया को देश । ४३२ जहाँ धीर गभीरता, जहँ न रार, अविचार, जहें सम भाव-स्थिति सहज, तह पीतम-दरबार । जहँ न कलह की कालिमा, जहँ न अलस अनुरक्ति, तहाँ रहत पीतम, जहाँ जागरूक आसक्ति । ४७०