पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४८०

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ऊम्मिला ४०४ अन्तरतर रीत्यो पर्यो, भग ताल, रस, रंग, भई धोर रव रहित मम, यह अस्तित्व-मृदंग । ४०५ ध्रुपद ताल अटपट भई, तीनताल सम हीन, भ्रमित दीपचन्दी भई, चाचर गति अति छीन । दृढता मय हिय ध्रुपद गति, भई विकम्पित आज, बिगरि गयो नैश्चिन्य मम, तीनताल सम साज । ४०७ मधु संजोग सुख मय ललित अमित सुरति रसलीन, सहज दीपचन्दी भई, ताल हीन, सम हीन । ४०८ उत्कठित अति चलित नित, मन गति चाचर ताल, सम गति रहिता वै गई, ई अटपटी चाल । सोरठा ताल हीन, रव हीन, रीती परी मृदग यह, करहु याहि रवपीन, भरि उद्घोष गभीर मृदु । ४६६