पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४७८

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ऊम्मिला कबहुँ डोर की ढील दै, कबहुँ खैचि के, प्रान, मन-नभ-मडल मे करहु, चग-केलि गुणवान । सोरठा मेरी चचल चग, सजन, निहारहु नैन भरि, ऐच पैच को रग, सरसावहु मन-गगन मे। ? हृदय विपची तै उठे, किमि स्वर-मय झकार का जानो कैसे भयो स्वर-साधन-सहार ? जज्जर तूंबी हृदय की, दारु-खड-मन, मग्न, तार भावना के सबै बिखरि, भए निर्लग्न । गायन-स्वर है रुदनमय, बहे आप ही आप, मधुर मीड ध्वनि खै गई, हिय हिचकी चुपचाप । चतुर कलाधर तुम निपुण वीणकार, हे नाथ, या वीणा जर्ज़रित की, लाज तिहारे हाथ ? ४६४