पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४७१

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पचम सर्ग ३४६ किन्तु प्रेम के योग में, होत सवै वह बात, ज्ञान योग में जो सतत, पद-पद पै दरमान । ३५० बहै यम, नियम, धारणा, वहै सुप्राणायाम, वहै ममाधि अनिगिता, वह ध्यान निष्काम । ३५१ नोऊ प्रेम-संजोग मे, कछ विशेपता आहि, ज्ञान योग पावक सतत, कोटि कष्टकर जाहि । ३५२ अन्तर एतो जानिए, प्रेम जोग के बीच, एक चलत मस्तिष्क ते, दूजो , हृदय उलीच । सोरठा अचला भक्ति अबाध, मोहि मिली पिय-कृपा ने, मिल्यो सनेह अगाध, इन वियोग के छिनन में । ३५४ प्रेम योगिनी हौ बनी, कारण जानौ नॉहि, मम निष्कारण नेह को, राखहु, पिय, हिय मॉहि । ४५७