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. ४५ "पाहा कही, अरी जीजी,तुम यह तो कया कहो, री, कहो, कहो, मत देर लगाओ, बातो मे न बहो री फिर मैं, अहा, सुनाऊँगी, री, तुमको एक कहानी, जिसको सुन, तुम हो जायोगी जीजी, पानी-पानी।" ४६ "सुन रानी ऊम्मिले, कई-सौ बीत चुकी है वरसे-- युद्धोद्यता एक बाला तब निकली थी निज घर से, तात चरण ने हो प्रसन्न जो कया कही है मुझसे-- वही कह रही हूँ मै, मेरी बहिन, ऊम्मिले, तुझसे । ४७ पौर जग्नपद का प्रिय सुयशी एक नृपति नरवर था, शुभ गान्धार देश पर उस का शासन अति शुभ-कर था, दुष्ट वैरियो के दलने में सूर्य समान प्रखर था, प्रजा पालने में वह राजा पूरा इन्द्र प्रवर था । ‘एक सर्वगुण सम्पन्न थी उसकी अच्छी रानी, मफ्ल राज्य मे सीच रही थी वह करुणा का पानी, लहराती थी प्रजा जनो की मनोवाञ्छाये यो- इन्द्रलोक में देव-गणो की सब आकाक्षाये, ज्यो । सब ओरो से पर्वत माला धेरै थी जन-पद को, माता के समान, रखती थी दूर सदा कुविपद को, शुभ्र हेम-हिम से आच्छादित उसकी शिखरे सारी, नवल उषा उन पर मोहित हो, जाती थी बलिहारो ।