पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४६८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ऊम्मिला नाम-सस्मरण मम, मानस-अर्चन धर्म, मगन ध्यान पिय को बन्यौ या जीवन को मर्म । ३२२ गत संजोग के दिनन की, सस्मृति जब जगि जात, तब हिय रोवत, अधर दोउ, पुनि कछु-कछ मुसकात । हो चाहत ही बॉधिबौ, समय-दाम में प्रेम, चाहत ही हौ उलटिबौ या अनन्त को नेम । ३३४ ? देश-काल-बन्धन रहित, कैसे बॉध्यो जाय किमि अनन्त आकाश यह, अजलि बीच समाय ? प्रिय, त्वदीय सीमा-रहित नेह अनन्त, अछोर, यह समुझी इन दिनन में विवश हियहि झकझोर । अब समुझी यह व्यर्थ है, हिय को हा-हाकार, चहिय राखिबौ मौनमय दुसह बिथा-सचार । ४५४