पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४६५

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पचम सर्म गुण-बन्धन-विरहित भयो, राग-भयो सुविराग, द्वैत-भयो अद्वैतमय, प्रेम-योग, तप, त्याग । ३१४ धूनी तपी, न चीमटा खनक्यौ एकौ बार, तऊ प्रेम-मन्यासिनी, भई वियोगिनि नार 1 सतत ध्यान, नित सस्मरण, तपश्चरण दिन-रैन पुण्य प्रेम को नेम यह, यह साधना ऐन । जा हिय मे नित बसत है, प्रेम पुनीत विशुद्ध, तहाँ राखिये कहहु किमि सस्कृति धर्म विरुद्ध । पिय-सनेह को बरत जहँ पुण्य दीप अविराम, तहाँ अन्धतम रहन न एकौ याम । वासना ३१८ मोरठा प्रेमी को समार, सतत साधनामय बन्यौ, वहाँ कहाँ कुविचार, तार नेह को जहें बँध्यौ ? ४५१