पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४६०

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ऊम्मिला २८३ प्रतीति, भई विरह-विधुरातुरा तव अनुचरा अन्तस्तल मे झलकि, झुकि, सरसावहु रसरीति । २८४ तव चरणन की हौ सदा, शुक्ल दासिका दीन, मोहि करहु, हे सत्य-शिव, नित निज रस तल्लीन । २८५ प्रति दिन दृग जोहत रहत, सतत तिहारी बाट, ज्योति चिरन्तन जगि रही, मुक्त-कुटीर-कपाट । २८६ लोचन-मुकुल बिछे प्रतीक्षा-बाट मे सनीर, पलक-पॅखुरियाँ है रही पल-पल ललकि अधीर । २८७ मो बगिया मे दुरि परौ कबहू तौ सुकुमार, डोलि रह्यो व्याकुल पवन, करि वियोग सचार । २८८ हारि गई नैनान की कली निमत्रण देत, पलक-पॉवडे परि गए नेह-पराग समेत । १४६