पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४४०

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ऊम्मिला हो एकाकी यात्रिणी चढी जात अकुलात गिरत, परत, पुनि पुनि उठत, सहत घात-प्रतिघात । १६४ चिर विश्वासाश्रय भयौ मम अवलम्बन-दड, पथ प्रकाशिका बनि गई, श्रद्धा-ज्योति अखड एक-एक करि के, करत शिलाखड को पार विरह-मैल पै चढि रही, मगन लगन मनुहार । 'कबहु-कवहु यह लकुटिया लचक जात, ह प्रान, चरण-विकम्पन कौ, कबहुँ होत देह कौ भान । कबहू-कबहू दीप की शिखा निरी अकुलात, कबहुँ निराशा पवन तै, विचलित है-जान । १६८ हो गरीबिनी यात्रिणी, रेंगी तिहारे रग, सजन, छडावहु तनिक यह ईति-भीति-दु सग ।