पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४३८

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कम्मिला १५१ दोऊ कूल, सू-सूने छै गए, विस्तृत सिकतामय निस्सारता प्रकटि भई प्रतिकूल । १५२ पल-पल बिकल बिलाय जल, कल-कल कलपत जाय, मचलि-मचलि, चलि-चलि थक्यो, जात न अतल समाय । १५३ अतल,-अवध मे ना मिलै, अतल-अवध ते दूर, अतल, अवधि लौ उमडिहै निर्जन मे भर पूर । १५४ बही चलहु जीवन-सरणि, या मे कछु न बसाय, कबहू तौ दुरि परहुगी, अतल शरण मे जाय । साधन पथ लम्बो बडो, निपट प्रतीक्षा-पूर्ण, दखौ श्रद्धा-साधना, कब होवै सम्पूर्ण 1 सोरठा कहू विरह-मरु बीच, लुप्त न होवे मम नदी, आवहु सिन्धु नगीच, नाघि अबघि-मयाद यह । ४२४