पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४३७

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पचम सर्ग १४५ तुम समुद्र, मिथिला ढुरे, लहराए वा ठौर, मो मरिता हित तुम सजन, भए और के और । १४६ हो लघु सरणी, मिल गई, पिय, तुम मे सकुचाय, सतला हौ, अतला भई, तुम सम सागर पाय । १८७ लहर-लहर सो मिलि गई, बुझी अपूरन प्यास, जीवन सो जीवन मिल्यो, मिट्यो प्रवाह-प्रयास । १४८ पै इक दिन तुम मम उदधि, गए नॉघि मर्याद, तब ते तटिनी मे उठ्यो कोलाहल, प्रतिवाद । १४६ उमडयो सागर विजन मे, छाडि नदी को सग, असभावना मिस भयो, विधि-विधान को भग । फिर प्रवाह को दाह वह, फिर वह हाहा-कार, फिर वियोगमय वेदना, फिर गतिमय अभिसार । ४२३