पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४२१

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पचम सर्ग ४६ उतै जात बढि दृग नदी, जितै प्रपूर्ण समुद्र, करै कृपा जो उदधि , तो मिटै भावना क्षुद्र । भूलि अह लघु हो तुम्हे पाय न सकिहौ , प्राण, हौ दासी, तुम सेव्य मम, मेरो यह विधान । मै तुम रूप न होउगी, तुम मो मे रमि जाहु, सूनी परी कुटीर मम, आहु सजन गृह प्राहु । ५२ शून्य रूप है कै तुम्हे, कैसे पावो नाथ ? मेरे या लघु 'अहं' को, करौ सनेह-सनाथ । नित्य निवेदित हृदय मम, शून्य रूप ना होय, हिय ढरकावत नयन तै, नेह निचोय-निचोय । एक रूप है के कहहु, कैसे करिये प्रेम ? प्रेमी प्रेमिक एक, तब, कितै नेह को नेम ? ४०७