पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४१५

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पचम मर्ग वन लोभी तुम, विपिन प्रिय, अहो सुमित्रालाल, मम जीवन-वन मे तनिक, चलहु अटपटी चाल । १४ जीवन-अटवी में बिछ गत सस्मृति के शूल, कटक प्रिय, कबहू इतै, तुम आवहु पथ भूल । जा छिन जीवन की उठी, प्रथम पुलक मुदमान, ताई छिन तै हो तुम्हे, दृढि रही अनजान । देस काल के गरभ मे, हौ पैठी अकुलाय, दूढि थकी तुमको, सजन, भेस अनेक बनाय । १७ उद्भिज, अडज, खनिज लौ, स्वदज, जलज अनेक, रूप धरे, पै ना मिट्यो, यह वियोग अविवेक । कछु छिन, तुम ने करि कृपा , या जीवन मे आय, दियो दान सयोग को हौ हुलसी हरषाय । ४०१