पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४१४

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ऊम्मिला 9 मुरि जनि देखहु तुम इतै, हे सुकुमार कुमार, अरुझि जागे दृग, इहा बिछे साँस के तार । ८ बीहड कानन सम भयो, जीवन-वन एकान्त, सघन विरह-पल्लवन सौं, भयो प्रपूर्ण दिनान्त । 8 दुसह बिथा के जमि गए, विकट झार-भखार, नित सकल्प-विकल्प के, साढे भए पहार । निपट निराशा-सिहनी, गरजि रही घनघोर, लिए सग भय-शावकन्हेिं, डोलि रही चहुँ ओर । गहि प्रत्यचा पलक की, भ्रकुटी तीर कमान, आखेटक, मावत इतै, साधि निशित दृग बान । अहो अरण्यक, है गयो, जीवन गहन अरण्य, लॉडि विजन, आवहु, इतै बसहु सनेह शरण्य । Yoo