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इस जोडी के अधरो पे है लाली राज रही यो- प्राची के मस्तक पर कुकुम-बिन्दी भ्राज रही ज्यो , अोष्ठ चतुष्टय पतले-पतले शोभित यो होते है- मानो अपे दशन-मोतियो को रक्षक सोते है । जब विकसित होती है दातो की ये शुभ्र अवलियाँ- तब उद्यानो मे सकुचाती है सब नूतन कलियाँ , हाम-पाश जब फैलाती है ये दोनो सुकुमारी- तब अशक्न-सी बँध जाती है जनक-विराग-खुमारी। कौन यहाँ से चला जायगा भवसागर तरने को ? कौन अगस्त्य सोख सकता है इस छोटे झरने को? किसका है सामर्थ्य करे जो उल्लघन यह सीमा ? कहाँ छुपा है विरति-राग वह, जो न पडेगा धीमा? सीता के ताटण्क, ऊम्मिला की वह सुन्दर नथनी- दूर फेक देगी विदेह की वह विराग की कफनी । अखिल विश्व के पितृ-हृदय को मोहित कर सकती है, वह वत्सलता है जो पत्थर लोहित कर सकती है । १६ खेल-खेल मे शिर दोनो हिल जाते है मुदमय हो, तब चारो कुण्डल हिलते है,-ज्यो मछली गुणमय हो,- तडप-तडप कर प्रकटाती है निज हिय की व्याकुलता । कहो, कही देखी है ऐसी शोभामयी विपुलता ?