पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४०२

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अम्मिला . ८६ विरह-जन्य तडपन नि सीमित करुणा उमडी, पीडा छाई जन-पद मे, वन बसा, अयोध्या उजडी, उखडी माकुल प्राणो की ये श्वासोच्छ्वास-तरगे, शिथिला हो गई अचानक जीवन की सरस उमगे, बढ आई, हो गई वेदना गहरी, अस्मिता-हृदय मे प्राकर ' यह विश्व-वेदना ठहरी 1 कल नयन-नदी अन्तर से लक्ष्मण-विछोह से हिय मे जय गई साधना तप की, मामू के मिस की अजलि टपकी, यह अवधि-दीप बन आई, पीतम स्मृति-दीपक बाती, हिय लगन जगी लौ बन के मजुल प्रकाश फैलाती, इस समय प्रतीक्षा-मग मे कम्मिला लिए निज दीपक, बैठी है जोगन बन के नित बाट जोहती अपलक ।