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ऊम्मिला ये चारो ही चपला अखे यो दौडी फिरती है, ज्यो गिर्योत्सगो से चपला धाराएँ गिरती है,- शिशु-क्रीडा के निश्छल भावो की यह अविरल धारा- बह-बह कर जीवन के दुख को कर देती है न्यारा । भोली-सी ये चार अखडिया डोल रही ऑगन म, फूली-फूली आनन्दित है फिरती इस प्रागण मे, मानो वदो की श्रुतियाँ है श्रवण छोड कर आई ,- अथवा चतुष्कामनायो ने अपनी छटा दिखाई । १२ जनकप्रिया के मातृ-हृदय की ये अखे लाडिलियाँ- भक्तिप्रेम के यज्ञ-कुण्ड की है घृत-आहुति-पलियाँ, श्यामा खचित 5 लताओ ने नयनो को जकडा है, चचलता के मन मे मानो मोहन पाश पडा है । आँखो के द्वारे कुछ कुछ है कृष्ण लोम की शोभा,- पक्ष्मे, मानो, सम्मानिया बन आई निर्लोभा, पलके जब-जब झंपती है तब, मानो दो-दो तारे,- बार-बार, मेघावृत होकर चमक रहे है न्यारे । १४ लम्बी-सी सुडौल नासा मे मुक्ता लटक रहे है, अधर लालिमा से रजित ये मोती मटक रहे है, मानो मानसरोवर-तीरे राजहस-हसिनियाँ- मुदित पान करती है सुन्दर मुक्त प्रेम की कणियाँ ।