पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३८९

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चतुर्थ सर्ग ये इच्छा-कारीगरनी सुन्दर कल्पना-भवन है, आँखो डह-डहते आकुल से वातायन सोपान ऑसुग्रो चढने को बने वहाँ पर, चढते-चढते फिसले है आशा कॅप-कॅप कर थर-थर, ओ निठुर नैक आकर तुम पॉव थाम दो इस के, देखो, बेचारी कब यह खडी-खडी है सिसके । ६४ ये ऑखे भिगो रही है पिय-पथ के धूल-कणो को, नित्य-प्रति सीच रही है ये विरह-त्रिशूल क्षणो को, विस्तीर्ण प्रतीक्षा-पथ को जल-सिक्त कर रही है ये, अथवा रसमय हिय-निधि को- नित रिक्त कर रही है ये, उतराती सी अकुलाती, झर-झर आती है जब-तब, बिन कहे अकारण ही ये, भर-भर उठती है डब-डब । ३७५