पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३५४

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जम्मिला ३४० हे मेरी गुर्वाणि जननि, तव- शिक्षा है अकित उर में, वैसे ही जैसे जग-पोषण सचित है लघु गो-खुर मे, अवधि-अन्त मे देखोगी तुम लक्ष्मण या तो लक्ष्मण है, या पहुंचा है वहाँ जहाँ की स्थिति अज्ञेय, विलक्षण है , निश्चय जानो, दूध तुम्हारा- नही लजाएगा लक्ष्मण, बरदे । दो वरदान तुम्हारा लक्ष्मण होवे शुभ लक्षण ।" ३४१ यो कह, आतुर हो लक्ष्मण ने थामे माँ के पूज्य चरण, और चरण कमलो में कर दी भक्ति-अश्रु की निधि अपर्ण , उठा लिया मॉ ने, छाती म भर गोदी बिठा लिया, फिर कँपते कॅपते शब्दो में उन को आशीर्वाद दिया माँ के आशीर्वादो से सिय- राम-लखन अभिषिक्त हुए विपिन चले हिय-घर्षण-चन्दन से अचित, सलिप्त हुए । म 3 ३४०