पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३४५

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३२२ मैं ने तुम से निज जननी का प्यार, दुलार, लाड, पाया, मात, रही है सदा तुम्हारी पर वत्सल घन-छाया, एक अवोध बालिका से मै, युवती होकर वढी यहाँ, सासो की छाया में मैं श्री चरण में चढी यहाँ, देवि नुम्ही ने तो मुझ को यह अात्मापर्ण का पाठ दिया, और तुम्ही ने मम मन-मन्दिर का यह मुक्त कपाट किया । ३२३ उमी तुम्हारी शिक्षा का यह- परिपालन है विजन-गमन, मदा प्रणोदक है मेरे तो तव श्री चरणो के रज-कण, उन्हे देख कर ही मम मन मे होती है विराग की स्फूर्ति, उन के दर्शन से होती है मेरी प्रात्म-निवेदन-पूर्ति , ह मॉ, उसी तुम्हारी पद-रज का यह शुभ प्रसाद पा कर, सीता, राम अनुगमन करती, आज अयोध्या से बाहर 1