पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३३२

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कम्मला घाते, " , स्वार्थ-परता, कह लेगी हम सब आपस मे., सब अपने जी की बाते, सह लेगी हम ज्यो-त्यो दुखकी सब तीखी-तीखी तुम्हे रोक रखना, हे लालन है यह चरम वह तो है कायरता, वह है- नव सन्देश करो गमन वन , बन जोगी तुम निर्जन-विचरण करो तव अनुगमन-करण लक्ष्मण के- मन की दुविधा हरो भले । निरादरता , - भले, २६७ तुम लीला वह सुनसान तान सुन पडती क्रन्दन के गायन की, वत्स राम, होने दो वन में रामायण की, इधर अवध मे , करुण रुदन का राग उठे तो उठने दो, गुरुजन-मातृ-पितृ-हृदयो सचित निधियां लुटने दो, जुट आने दो आज भीर तुम , करुणामय सन्तापो की, छिटकी है क्या छटा आज यह जगपति के अभिशापो की । ३१८