पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३३१

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तृतीय सर्ग लाल, भेरे, ? २६४ "तुम ने मुझे निहाल कर दिया, मेरे सूने मानस-नभ-मडल के, तुम नव मेघ-श्याम मेरे, धन्य हुई पाकर मै इतना- यह विश्वास तुम्हारा लाल, पर तुम यह क्या कहते हो, हे- मेरे प्यारे भोले बाल यह अगाध तव भक्ति-भाव , यह- प्रेम-नेम-विश्वास परम- बलि जाऊँ , मेरे हिय को है पहुंचाता सुख-शान्ति चरम । २६५ पर मैं कैसे कहूँ, कि तुम पितुराज्ञा उल्लषित कर दो ? कैसे कहूँ धर्म पालन से अपने को बचित कर दो ? भवितव्यता अमिट है, यह वन- गमन राम का, लक्ष्मण पालन तो निश्चय होगा ही, सुत तव तात-चरण-प्रण का हम ? मै , बहू ऊम्मिला, जीजी- सब सह लेगी, छाती पर पत्थर रख कर इस अवधि-अन्त तक रह लेगी। 3 कौशल्या, ३१७