पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३२५

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तृतीय सर्ग , २८२ हे एकाक्षर धारिणी, मॉ, तुम हो कल्याणमयी, प्रथमोच्चारण की प्रणोदना की हो तुम चाहना नयी, तुतली असस्कृता वाणी की हो तुम मुग्धा गुण गरिमा, आद्य शब्द सस्फुरण भाव की तुम हो मतिमती महिमा मुसकाते अधरो से 'माँ' का तरल लार-मा नाम चुआ, थर-थर, लहर सिहर, अन्तर से - उद्गीरित यह नाम हुआ । २८३ माँ,--शैशव की अश्रुधार से भरी मटुकिया सरस बनी, मॉ,---खीझे शिशु के रज-रजन से जिसकी सब गोद सनी, क्षणिक हास के मृदु विलास से उत्फुल्लिता सलौनी, माँ, दुग्ध दान की, पयस्विनी, मधुरा, निरी अलौनी, मॉ, माँ,--प्रबोध दायिनी, सुसस्कृति- शिक्षा की गुर्वाणी,--माँ, माँ,--बालक की शब्द-दीनता की अतुला मृदु वाणी,-मॉ ।