पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३०५

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तृतीय सर्ग तुम घेरे, आर्य पुत्र हम दम्पति २४३ वन-जल-थल मे, अनिल-अनल में तुम होगी सँग-सँग मेरे, लक्ष्मण के स्मृति-नभ-मडल को सदा रहोगी के हृदय अतल मे वत्सलता की झॉई सी चमक-चमक उछलोगी, रानी, लक्ष्मण की परछाई-सी, यहाँ छोड कर तुम्हे, न समझो, सुख लूटेगे, सब विहार-सुख इस कोसलपुर ही पीछे छूटेगे।" २४४ "तुम अरागिणी बन, वैरागी- आर्य राम के सँग जाओ, इस विराग-अनुराग-रग मे मुझको भी तुम रंग जाओ, जीजी, अपने ही हाथो से, इकटक ज्योति जगा जाओ, वरदे, मेरे आकुल हिय मे, अपलक लगन लगा जाओ, लगन लगाती, ज्योति जगाती, हिय-मन्थन करती जानो, वन मे नवयुग का उद्घाटन अभिनन्दन करती, जाप्रो । २६१