पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३०१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय सम २३५ विचलित होती देख मुझे, वे- सम्हल गए, फिर इक छिन मे, बादल हटे, नेत्र चमके, रवि- मानो दो चमके दिन मे, तुम से, बहना, तुम से मैं क्या- कहूँ बात अपने मेरे लिए बनी है क्या-क्या यह मृदु मूरत लक्ष्मण की, आर्य-पुत्र से नही पा सकी हूँ प्रसाद माता-पन का, पर मातृत्व उमडता मेरा मुख देखू जब लक्ष्मण का । मन की ? यह समझो कि लखन है मुझको, अधिक कोख के जाए से, प्रियतर है वे मुझको अपने निज के गोद-खिलाए से, ज्यो सिहिनी जोहती रहती, है अपना शावक चचल, त्यो लक्ष्मण पर फैला दूंगी, मै अपना दुकूल आर्य-पुत्र की छत्रच्छाया मे भय का कुछ लेश नही, उन' के साहचर्य मे, रानी, कुछ आशका, क्लेश नहीं । अचल, २७