पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२८३

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तृतीय सर्ग 72 वन्धन यो कहें "साधु, साधु, यह भला किया जो- तुम ने यह अनुमति दे दी, मुझ को नई स्फूर्ति दे दी औं' मनिष्ठा की रति दे दी।" यो आजानु भुजानो म भर, लखन-प्रिया, लक्ष्मण बोले- "रानी, तुम ने आज हृदय के मेरे सब खोले, चुम्बन करते, हिय लिपटाते, लक्ष्मण मूक हुए, अथवा लखन-म्मिला-हिय के सहसा अगणित टूक हुए। २०० एक क्षण होता है जीवन मे, 'नवीन' ऐसा जब मब व्यक्त भाव रुक-रुक जाते ह, भाव-अभिव्यक्ति शक्ति-हीन अबला-सी थक गिर पडती है, नेत्र झुक-भुक आते है, हृदय के वेदनानल की कुछ लपटो मे मानव भाषा के शब्द फूंक-फूंक जाते है, मौन-विष के बुझे हुए वे मूक हूक-नीर बरबस हिय बीच भुंक-भुंक जाते लड़ते-झगडते-अटकते अस्फुट शब्द हिचकी के मिस टुक जाते दुक आते है, हिचकियो-आहो के व्याज से शतियो के सब शब्द-ऋण छिन ही में चुक-चुक जाते है । . २६९