पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२७०

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ऊम्मिला १७३ प्रिय, बिन बोले उमड आय यदि- यह हिय, तो मेरा बस क्या ? में क्या करूँ कभी रह-रह यदि छलके घट करुणा रस का ? यो निर्मोही, निठुर धनुर्धर, तुम मूंदो अपने नैना, कान मूंद लो, सुने-अनसुने कर दो तुम तडपन तो होगी, होने दो, रोऊँगी, रो लेते दो, अपने युगल चरण तुम मुझको ऑस से धो लेने दो। मेरे बैना, ओ प्रिय, दिवस काटने का तुम कुछ तो जतन बता जाना, जिस से पुन अवध आने पर- पडे न तुमको पछताना, अवधि-अन्त में छटा लख सकूँ मै इन सरसिज-चरणो की- देते जाना मुझे सुमरिनी अपने कुछ सस्मरणो की, कर दो मुझ को लक्ष्मण-मय, निज- आत्मरूप मुझको कर दो, रिक्त हुआ जाता हिय, इस मे तुम लक्ष्मण-लक्ष्मण भर दो। २२६